राह की आह

भूली सी पगडंडी मुझे जब मिल गई पुछा जो उसने फिर मेरी बाते नई एक तूफ़ान उठा, सरसराया, थम गया मेरी आवाज़ देख गुजती बन के हवा, उस हूक पे नज़रे तब टिकी ही रह गई धधकती आग में अब राख बाकी ही रही मेरी जिल्लत ने है पहना जो जामा शेर का खुश्क दरियापढ़नापढ़ना जारी रखें “राह की आह”

विरह लोक गीत

भूली अखियां आज निहारे तेरी प्रीत न बिसरी मोहे तू मोहे काहे बिसारे भूली अखियां….! दिन बीते आवे जो रतिया नैना ना चंदा निहारे कड़के बादल चमके बिजुरिया मन हिचकोले खावे रे तेरी आस बंधी रह जावे पानी बिन जो जो मीन तपड़ती मोहे तड़पाती आवे रे भूली अखियां…..! सब कहती अब कजरी आई तोरेपढ़नापढ़ना जारी रखें “विरह लोक गीत”

नव किरण

नव किरण, नव पुष्प, नव तृण नव उषा का आगमन है, कुंज, तट और वाटिका पर रश्मियों का आवरण है, नील के इस उच्च पट पर विहग वृन्दो का गमन, यह सब प्रकृति के हर्ष में डूबे हुए मन का कथन है, दूर से आती हुई वह भास्कर की लाल रेखा , जीव के उल्लासपढ़नापढ़ना जारी रखें “नव किरण”

वीर आज हुंकार भरो

वीर आज हुंकार भरो रण को हर योद्धा न पाता तुम फिर क्यो प्रतिकार करो वीर आज….……..। महासमर है शत्रु प्रबल हैं तुम भी निर्भय वार करो , एक एक पर बरस पड़ो चंडी का तुम जयकार करो , विजय नाद मंडल में गुजे ऐसा एक आघात  करो, रिपु हो जाय अस्त व्यस्त ऐसी गतिपढ़नापढ़ना जारी रखें “वीर आज हुंकार भरो”

उसको देखा पर ?

उसको देखा, पर ? जाता हूं सबेरे नित्य,जहा समाप्त होती है एक गुजरी शाम कि कहानी । ख़ामोशी खत्म हो जाती हैं झुरमुट से आती, दिन की पहली किरण में । मुझे पता है नहीं जा सकते तुम, रात को अपने बसेरे के आगन में । छोड़ कर उस झील के किनारे को, जो हैंपढ़नापढ़ना जारी रखें “उसको देखा पर ?”

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